इस समय सुहास के कमरे में जाना है और उसे खाना खिलाना है? अस्थायी है तो क्या जान लेंगे? वो काम करायेंगे जो नर्स का है? लेकिन डॉक्टर मीना मना नहीं कर सकती थी। प्लेसमेंट की चिंता जो थी। वो इस हॉस्पिटल में अस्थायी डॉक्टर है और सुहास अस्पताल के मालिक का बेटा।

“क्यों नहीं खाना आपको खाना?” मीना ने वहां जाकर डांट लगाई और नर्स को इशारा किया कि वो खाने का स्टूल बिस्तर के पास करें। “मैं अस्थायी डॉक्टर सही पर आप इस समय प्रशासनिक अधिकारी नहीं, मरीज़ हैं। अस्पताल में मरीज़ को उसकी हैसियत नहीं, बीमारी के हिसाब से खाना दिया जाता है। इसलिए नखरे छोड़िए और चुपचाप खाना खाइए।” “ये खाना अस्पताल की कैंटीन से सब मरीजों के लिए बने खाने से आया है” नर्स ने जोड़ा। सुहास की आंखों में आंसू आ गए पर वो खाना खाने लगा।
अपने कमरे में लौटकर मीना कुछ उलझ सी गई। ये लड़का कुछ समझ में नहीं आता। शुरु में जब यहां आई थी तब से वो मीना के लिए एक पहेली बना है। तब तो ये बीमार नहीं था। प्रशासनिक काम देखता था। पर गजब का घमंडी लगता था। कभी किसी सहायक या अस्थायी तो क्या सीनियर डॉक्टर्स से भी बात करते नहीं देखा इसे। यही नहीं, अपने पिता के साथ भी छत्तीस का आंकड़ा है इसका। दोनो में तना-तनी साफ दिखाई देती है। लेकिन मीना की सारी परेशानियां उसने बिन कहे ही हल कर दी तो मीना का नज़रिया बदलने लगा। उसकी बहन से फोन नंबर लेकर इसे थैंक्स मैसेज भेजे तो बातचीत की धारा चल निकली। धीरे-धीरे इन छोटी-छोटी बातों मुलाकातों और सहायताओं से मीना का मन बंधने लगा। उसे देखकर हमेशा बड़ी स्निग्धता से मुस्कुराता रहता था वो। मीटिंग्स में भी अक्सर मीना ने उसे अपनी ओर अपलक देखते पाया था।